Wednesday, November 17, 2010

गीता सार


१. क्यों व्यर्थ चिंता करते हो ? किससे व्यर्थ डरते हो ?  कौन तुम्हें मार सकता है ?  आत्मा न पैदा होती है, न मरती है I

२.  जो हुआ अच्छा हुआ I जो हो रहा है, अच्छा हो रहा है I जो होगा वह भी अच्छा ही होगा I तुम भूत का पश्चाताप न करो, भविष्य की चिंता न करो I  वर्तमान चल रहा है I

३. तुम्हारा क्या गया, जो तुम रोते हो ? तुम क्या लाये थे, जो तुमने खो दिया  ? तुमने क्या पैदा किया था जो नाश हो गया ? तुम  कुछ न लेकर आये I  जो लिया, यहीं से लिया I  जो दिया, यहीं पर दिया I    जो लिया भगवान् से लिया I  जो दिया भगवान् को दिया I खाली हाथ आये थे, खाली हाथ जायेंगे I  जो आज तुम्हारा है, कल किसी और का था, परसों किसी और का होगा I तुम इसे अपना समझ कर मग्न हो रहे हो I  बस यह प्रसंता ही तुम्हारे दुःख का कारण है I  

४. परिवर्तन संसार का नियम है I  जिसे तुम मृत्यु समझते हो वही तो जीवन है I  एक षण में तुम करोड़ों के स्वामी बन जाते हो और दुसरे ही षण तुम दरिद्र हो जाते हो I मेरा-तेरा, छोटा-बड़ा, अपना-पराया मन से मिटा दो, विचार से हटा दो I  फिर सब तुम्हारा है और तुम सब के हो |    

५. न यह शरीर तुम्हारा है न तुम इस शरीर के हो I  यह अग्नि, जल, वायु, पृथ्वी, आकाश से बना है और इसी में मिल जाएगा I परन्तु आत्मा स्थिर है, फिर तुम क्या हो ? तुम अपने आप को भगवान् के अर्पित करो I यही सबसे उत्तम सहारा है I  जो इसके सहारे को जानता है, वेह भय, चिंता, शोक से सर्वदा मुक्त है | 

६. जो कुछ भी तू करता है उसे भगवान् के अर्पित करता चल I  इसी से तू सदा जीवन मुक्त आनंद का अनुभव करेगा |    

No comments:

Post a Comment